उत्तररामचरित

 किसी साहित्य रसिक को राम कथा में तब रोमांच होता है जब आख्यान में कुछ अनोखापन मिले, जन प्रचलित कथाक्रम से परे। कल्पना की छोटी बडी उड़ानो का मौलिक प्रसंगों से मिश्रण नये दृष्टिकोण और सीख उत्पन्न करता है। भवभूति की उत्तररामचरित ऐसी ही एक रचना है। 

भवभूति आठवीं शताब्दी के विद्वान थे जो कन्नौज के राजा यशोवर्मन की सेवा में थे। उनका नाट्य कौशल कालिदास समान माना जाता है।भवभूति की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति उत्तररामचरित है। आरंभ का कथाक्रम कुछ ऐसा है। लंका से लौटने के उपरांत राम का राजतिलक हो चुका है। फिर सीता का बनवास होता है और शम्बूक का वध।

तीसरे अंक में भवभूति की कल्पना प्रफुल्लित होती है और संवेदनशीलता की पराकाष्टा भी दर्शाती है। वियोग की पीड़ा से प्रताड़ित राम का मार्मिक वर्णन किया है। 

"राम के दृढ सयम के कारण उनके अंतःकरण का विकट संताप चहरे पर प्रकट नहीं था, पर मन ही मन किसी उबलते हुए तरल पदार्थ की तरह उमड़ रहा था।"

इस तपन को शान्त करने हेतु राम पंचवटी पहुँचते हैं जहाँ अपनी अर्धांगिनी संग सुखद वर्ष बिताए थे। संयोगवश सीता भी वहीं थी। अपने पति की व्यथा देख वह करुणामय हो जाती है।

"हाय! मेरे स्वामी कितने क्षीण और कांतिहीन हो गए हैं जैसे भोर के चंद्रमा।  सिर्फ अपनी गरिमा की स्थिरता और सौम्यपन के कारण पहचाने जा रहे हैं।"

राम को सीता की उपस्थिती का अहसास तो होता है पर॔तु सीता उनके सम्मुख नहीं आती। सिर्फ पछतावे के भाव से कहती है -

"मेरे स्वामी भी वही हैं, यह पंचवटी भी वही है, यह वही आरण्य है जो हमारी प्रणय क्रीड़ा का साक्षी था, और मैं भी वही हूँ। परंतु मुझ अभागिन के लिए इन सब का कोई अस्तित्व नहीं है। मेरे जीवन का कालचक्र कहाँ पहुंच गया है।"

अंत में बिना मिले राम और सीता अपने अपने स्थान लौट जाते हैं। इस ना मिलने का भवभूति कोई विश्वसनीय कारण नहीं देते हैं। शायद सीता नहीं चाहती थी की विवश होकर राम इस नाजुक पल में अपने निर्णय से पथभ्रष्ट हो जाएँ। या भवभूति मूल कथा के आख्यान का सम्मान रखना चाहते थे। कल्पना की भी सीमा होनी चाहिए।

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