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लंकिनी का रहस्य

 लंकिनी का प्रसंग हर मुख्य राम कथा में सुंदरकांड में मिलता है। संक्षिप्त में व्याख्यान कुछ ऐसा है। लंकिनी लंका की प्रहरी है और बजरंगबली को प्रवेश करने से रोकती है। हाथापाई के पश्चात लंकिनी परास्त होती है और हनुमान लंका में घुस जाते हैं। वाल्मीकि और कम्ब की रामायण में लंकिनी की पृष्ठभूमि स्पष्ट है। वह ब्रह्मलोक की कुशल प्रहरी थी जिस कारण उसने बहुत मान कमाया था। सफलता उसके सर पर चढ़ गई और वह घमण्ड में चूर चूर हो गई। ब्रह्माजी ने उसे दण्डित किया और लंका की चौकीदारी के लिए भेज दिया। जब लंकिनी एक वानर से हार जाएगी तब लंका के अंत का आरंभ होगा और लंकिनी की सजा समाप्त होगी। रामचरितमानस में लंकिनी का अतीत अस्पष्ट और रहस्यमय भी है। तुलसीदासजी लिखते हैं - जब रावनहि ब्रम्ह बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।। बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।। रहस्य यह है कि तुलसीदासजी किस वरदान की बात कर रहे थे। सर्व ज्ञात वरदान है कि रावण का मानव के सिवाय कोई जीव वध नहीं कर सकता। परंतु इस समय लंकिनी उपस्थित नहीं थी। रामचरितमानस में इस वरदान का स्पष्टिकरन नहीं मिलता। टीका टिप्पणियों में अटकल

उत्तररामचरित

 किसी साहित्य रसिक को राम कथा में तब रोमांच होता है जब आख्यान में कुछ अनोखापन मिले, जन प्रचलित कथाक्रम से परे। कल्पना की छोटी बडी उड़ानो का मौलिक प्रसंगों से मिश्रण नये दृष्टिकोण और सीख उत्पन्न करता है। भवभूति की उत्तररामचरित ऐसी ही एक रचना है।  भवभूति आठवीं शताब्दी के विद्वान थे जो कन्नौज के राजा यशोवर्मन की सेवा में थे। उनका नाट्य कौशल कालिदास समान माना जाता है।भवभूति की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति उत्तररामचरित है। आरंभ का कथाक्रम कुछ ऐसा है। लंका से लौटने के उपरांत राम का राजतिलक हो चुका है। फिर सीता का बनवास होता है और शम्बूक का वध। तीसरे अंक में भवभूति की कल्पना प्रफुल्लित होती है और संवेदनशीलता की पराकाष्टा भी दर्शाती है। वियोग की पीड़ा से प्रताड़ित राम का मार्मिक वर्णन किया है।  "राम के दृढ सयम के कारण उनके अंतःकरण का विकट संताप चहरे पर प्रकट नहीं था, पर मन ही मन किसी उबलते हुए तरल पदार्थ की तरह उमड़ रहा था।" इस तपन को शान्त करने हेतु राम पंचवटी पहुँचते हैं जहाँ अपनी अर्धांगिनी संग सुखद वर्ष बिताए थे। संयोगवश सीता भी वहीं थी। अपने पति की व्यथा देख वह करुणामय हो जाती है। &quo

सीताजी का शक्ति स्वरूप

  शक्ति आज की राजनीतिक चर्चा में गर्माई है। जब से राहुल गान्धी ने शक्ति शब्द का अभद्र प्रयोग किया भाजपा पलटवार में जुट गई हे। सोशल मीडिया पर हमारी दैवी शक्तियों की सूचियां प्रचलित हैं और साथ में उनके अधुरी शत्रु। पर इन सूचियों में एक नाम नहीं दीखता और वह है सीताजी का। सीताजी नें कभी शस्त्र नहीं धारन किए थे - ना ऋषि वाल्मीकि की कथा में और ना ही गोस्वामी तुलसीदास की कथा में। परंतु सीताजी थीं शक्ति का स्वरूप। अद्भुत रामायण महर्षि वाल्मीकि की एक अन्य रचना है जो उतनी ही प्राचीन मानी जाती है। कथा का प्रथम भाग सामान्य राम कहानी है। सीताजी के अद्भुत शक्ति स्वरूप का वर्णन रचना के पूर्व भाग में है। ग्रंथ के सप्तदश सर्ग का प्रसंग है। राम के राजतिलक पश्चात सीताजी  ने मंद परिहास भाव से दरबार में कहा कि लंका के रावण का वध कोई पराक्रम नही था। उसका बड़ा भाई, सहस्त्रवदन रावण, ब्रह्माण्ड में पुष्कर द्वीप से राज्य करता है और वह लंका के रावण से दस गुना बलवान और क्रूर है। वीर कहलाने योग्य वह होगा जो सहस्त्रवदन रावण का वध करेगा। राजा राम ने चुनौती स्वीकारी और सेना, मंत्री और सीताजी सहित पुष्पक विमान पर सवार

मैया, मैं तो चंद खिलौना लैहों

हाँ, यह सूरदासजी का पद है जिसमें बालकृष्ण लीला का वर्णन है, फिर भी इस राम कथा की श्रृंखला में सार्थक है। जब अपने छोटे बच्चों को पहली बार पूर्णिमा का चाँद दिखाते हैं तब अक्सर कहते हैं कि आसमान में गेंद या गुब्बारा देखो। और बालक चंद्रमा से खेलने का हठ कर बैठता है। यह एक सामान्य और स्वाभाविक अनुभव है। कन्नड के प्रसिद्ध लेखक कुवेम्पु ने श्री रामायण दर्शनम नामक राम कथा पर महाकाव्य रचा है। इस कृति को 1967 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सुशोभित किया गया है। काव्य में एक सुंदर प्रसंग है जब रामलला पूनम के चाँद को हाथों में पकड़ने का हठ कर लेते हैं। पहले कौशल्या माँ समझाती है कि चाँद धरती पर नहीं आ सकता। फिर हीरों से जड़े अन्य खिलौनों का प्रलोभन देती हैं, पर लला पर कोई असर नहीं होता। अंत में डाँट फटकार भी असफ़ल रहती है। महाराज दशरथ पुत्र को गोद में लेते हैं पर चुप नहीं करा पाते। अब कैकयी माँ की बारी आती है। वे एक छोटा आइना राम के हाथ में पकड़ाती हैं और सहजता से उसमें चंद्रमा का प्रतिबिंब दिखाती है। राम लला आनंदित हो खिलखिलाने लगते हैं। कैकयी और राम का यह निकट बंधन कई प्रश्न उठाता है, पर इस विषय

श्रीराम के पदचिह्न पर

 हाल ही में मैंने एक अत्यंत दिलचस्प पुस्तक पढ़ी थी जिसका अंग्रेजी में शीर्षक था "इन द फुटस्टेप्स ऑफ राम"। विक्रांत पाण्डे और नीलेश कुलकर्णी उन सब स्थानों पर रहे जहाँ श्रीराम अपने बनवास काल में पदचिह्न छोड़ गए थे। रामकथा से प्रेरित वहाँ की लोक मान्यताओं का और स्मारकों का पुस्तक में रोचक विवरण मिलता है। चित्रकूट के पास एक गुफा है जहाँ सीता माँ नित्य श्रृंगार करती थीं ऐसा वहाँ के निवासियों का विश्वास है। पंचवटी में आप मारीच की समाधी के दर्शन कर सकते हैं। श्रीलंका में वह चट्टान मौजूद है जहाँ से पाताल लोक में अही रावण के राज्य का मार्ग बताया जाता है। हर राम कथा प्रेमी का मन ललचायेगा कि वह इस यात्रा का आनंद उठाए। परंतु राम कथाओं में कुछ ऐसी यात्राओं के वर्णन मिलते है जो पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं - जिनके घटने की कोई संभावना नहीं हैं। बलरामदासजी की उड़िया भाषा में रचित जगमोहन रामायण का एक प्रसंग मनभावन है। चित्रकूट की ओर प्रस्थान से पूर्व, श्रीराम सीता माँ और लक्ष्मण भैया जगन्नाथ प्रभू के दर्शन हेतु श्रीक्षेत्र पधारते हैं। बलरामदासजी की अत्यंत सौम्य और मार्मिक प्रस्तुति है। ईश्वर के

अहल्या - गुरुमाता या भक्त

अहल्या के उद्धार का प्रसंग रामचरितमानस, और जन प्रचलित राम कथा में भी, कुछ ऐसा है। प्रभु उजडे आश्रम में शिला को चरण से स्पर्श करते हैं और अहल्या प्रकट होती हैं। वे भगवान के चरणों में आश्रय लेकर भक्ति की विनती करती हैं। आदि काव्य में ऋषि वाल्मीकि की कथा में अंतर है। अहल्या श्रापवश शिलाग्रस्त नहीं होती हैं, वे अदृश्य हो जाती हैं। कोई उन्हें देख नही सकता परंतु वे सब देख सकती हैं। श्रापमुक्त तब होती हैं जब अयोध्या के राजकुमार राम आश्रम में प्रवेश करते हैं। कोई दैवी चमत्कार नहीं होता। फिर राम गुरुमाता के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। क्या यदि एक कथा घटित है तो दूसरी का काल्पनिक होना आवश्यक है? तर्क तो यही कहता है। पर इस मसले को देखने का एक अन्य दृष्टिकोण भी है। हर व्यक्ति के अनेक पहलू होते हैं। रचनाकार कोई एक पहलू पकड कर प्रसंग लिख देता है। ऋषि वाल्मीकि ने अहल्या में गुरुमाता देखी तो राम राजकुमार बन गए। गोस्वामी तुलसीदास के लिए राम प्रभु थे तो अहल्या भक्त बन गईं। मौलिक बात यह है कि दोनों प्रसंगों से हमें कुछ सीख मिलती है। पात्रों का चित्रण कैसा भी हो, लेकिन उनके कर्म धर्म का

प्राण-प्रतिष्ठा

 मैं अपने आप को राम भक्त तो नहीं कह सकता, परन्तु मैं निःसंदेह राम कथा का उत्कट प्रेमी हूॅ। इसलिए अयोध्या में रामलला के प्रान प्रतिष्ठा के अवसर पर मैंने निर्णय लिया कि मैं अपना राम कथा प्रेम इस माध्यम द्वारा व्यक्त करूॅगा। राम कथा की विस्तारता और विविधता ने मुझे मोहित कर रखा है। सदियों से दोहराई गई हरि गाथाएं अनन्त हैं और नित्य कुछ नया प्रदान करतीं हैं। जीवन के सभी पहलू इनमें मिश्रित हैं। भक्ति, उपदेश, दर्शन, मनोविज्ञान, रोमांच - सूचि अनन्त है। इस असीम सागर की कुछ बूंद मैं आपसे साझा करना चाहता हूॅ, इस आशा से कि आप भी इस यात्रा का आनंद उठाएँ। आज मैं बस एक बात कहना चाहूँगा। रामलला का मंदिर भव्य है, प्राण प्रतिष्ठा सुखदाई रही, और जन समुदाय का उत्साह संक्रामक था। पर एक बात दिल में खटक रही है। जिस दिन प्राण प्रतिष्ठा हुई, वह 22 जनवरी थी  - इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है। पर हमारे पंचांग अनुसार तय तिथी थी पौष मास शुक्ल पक्ष द्वादशी। बार बार 22 जनवरी दोहराना, हमारे संसद में भी, अनुचित है, खासकर जब हम अपनी सोषित विरासत उजागर करने के पथ पर अग्रसर हैं। यदि हम इस पावन अवसर की सालगिरह हर वर्ष 22 ज