श्रीराम के पदचिह्न पर

 हाल ही में मैंने एक अत्यंत दिलचस्प पुस्तक पढ़ी थी जिसका अंग्रेजी में शीर्षक था "इन द फुटस्टेप्स ऑफ राम"। विक्रांत पाण्डे और नीलेश कुलकर्णी उन सब स्थानों पर रहे जहाँ श्रीराम अपने बनवास काल में पदचिह्न छोड़ गए थे। रामकथा से प्रेरित वहाँ की लोक मान्यताओं का और स्मारकों का पुस्तक में रोचक विवरण मिलता है।

चित्रकूट के पास एक गुफा है जहाँ सीता माँ नित्य श्रृंगार करती थीं ऐसा वहाँ के निवासियों का विश्वास है। पंचवटी में आप मारीच की समाधी के दर्शन कर सकते हैं। श्रीलंका में वह चट्टान मौजूद है जहाँ से पाताल लोक में अही रावण के राज्य का मार्ग बताया जाता है। हर राम कथा प्रेमी का मन ललचायेगा कि वह इस यात्रा का आनंद उठाए।

परंतु राम कथाओं में कुछ ऐसी यात्राओं के वर्णन मिलते है जो पूर्ण रूप से काल्पनिक हैं - जिनके घटने की कोई संभावना नहीं हैं। बलरामदासजी की उड़िया भाषा में रचित जगमोहन रामायण का एक प्रसंग मनभावन है। चित्रकूट की ओर प्रस्थान से पूर्व, श्रीराम सीता माँ और लक्ष्मण भैया जगन्नाथ प्रभू के दर्शन हेतु श्रीक्षेत्र पधारते हैं। बलरामदासजी की अत्यंत सौम्य और मार्मिक प्रस्तुति है। ईश्वर के तीन स्वरूप, दो मर्द एक मादा, कर बद्ध और नत मस्तक आशिर्वाद माँग रहे हैं और उसी ईश्वर के तीन अन्य स्वरूप, दो मर्द एक मादा, हाथ उठाए आशिष दे रहे हैं। पंक्तियों का हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है।

जगन्नाथ के समक्ष खडे राम

साथ हैं लखन और बलराम

सीता करे सुभद्रा को प्रणाम

इस काल्पनिक प्रसंग को बलरामदासजी ने अपनी कृति में किस मनसा से सम्मिलित किया? कथा का एक उद्देश्य यह भी है कि वह जन समुदाय को ईश्वर से जीड़े। आज के ओड़िशा प्रदेश में प्रभु राम का पदार्पण हुआ ही नही था। इसलिए वहाँ के निवासी राम कथा से उस कदर आत्मीय नही थे जितने अयोध्या या चित्रकूट या पंचवटी या किष्किधा के लोग। कदाचित इस अभाव पूर्ति के लिए ही कवि ने इस घटना की कल्पना की थी। ताकि ओड़िशा वासी कह सकें "राम हमारे हैं - राम हमारे घर पधारे थे।"





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