अहल्या - गुरुमाता या भक्त

अहल्या के उद्धार का प्रसंग रामचरितमानस, और जन प्रचलित राम कथा में भी, कुछ ऐसा है। प्रभु उजडे आश्रम में शिला को चरण से स्पर्श करते हैं और अहल्या प्रकट होती हैं। वे भगवान के चरणों में आश्रय लेकर भक्ति की विनती करती हैं।

आदि काव्य में ऋषि वाल्मीकि की कथा में अंतर है। अहल्या श्रापवश शिलाग्रस्त नहीं होती हैं, वे अदृश्य हो जाती हैं। कोई उन्हें देख नही सकता परंतु वे सब देख सकती हैं। श्रापमुक्त तब होती हैं जब अयोध्या के राजकुमार राम आश्रम में प्रवेश करते हैं। कोई दैवी चमत्कार नहीं होता। फिर राम गुरुमाता के चरण स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

क्या यदि एक कथा घटित है तो दूसरी का काल्पनिक होना आवश्यक है? तर्क तो यही कहता है। पर इस मसले को देखने का एक अन्य दृष्टिकोण भी है। हर व्यक्ति के अनेक पहलू होते हैं। रचनाकार कोई एक पहलू पकड कर प्रसंग लिख देता है। ऋषि वाल्मीकि ने अहल्या में गुरुमाता देखी तो राम राजकुमार बन गए। गोस्वामी तुलसीदास के लिए राम प्रभु थे तो अहल्या भक्त बन गईं।

मौलिक बात यह है कि दोनों प्रसंगों से हमें कुछ सीख मिलती है। पात्रों का चित्रण कैसा भी हो, लेकिन उनके कर्म धर्म का मार्ग इंगित करते हैं। राजकुमार और गुरुमाता के रिश्ते में राजकुमार चरण स्पर्श करता है और माता आशीष देती है। भक्त और भगवान के रिश्ते में भक्त चरण स्पर्श करता है और भगवान आशीष देते हैं।

राम अवतार के वर्णन को हम इतिहास मानते हैं और परम्परागत रूप से इतिहास घटित और कथा का मिश्रण है जो धर्म का मार्गदर्शन करता है। कल्हण ने राजतरंगिनी में लिखा है -

धर्मार्थ काम मोक्षाणाम उपदेश समन्वितम्।

कथायुक्तम पूरवृत्तम इतिहास तचक्षमते।।





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